एक और हादसा

गुरुवार, 30 जून 2011 3 टिप्पणियाँ
29/06/2011 बु्धवार को एन एच 30  के 19 वें किलो मीटर पर एक ट्रक पलटी।



अंत्येष्टि में गया परिवार दुर्घटना का शिकार

मंगलवार, 28 जून 2011 5 टिप्पणियाँ
27 जून 2011 सोमवार को साढे 11 बजे एक रिश्तेदार के देहावसान की सूचना मिली। तुरत-फ़ुरत हम अंत्येष्टि कार्यक्रम में शामिल होने मोटर सायकिल से 120 किलो मीटर के सफ़र के लिए चल पड़े। हाईवे के 4 किलो मीटर पर पहुंचे, एक भीषण कार दुर्घटना देखने मिली। यह कार भी खड़ी गाड़ी में पीछे से टकरा गयी थी। हालात देखने से लगा कि वैन में परिवार था, छोटे बच्चों एवं महिलाओ के चप्पल भी दुर्घटना स्थल पर पड़े थे।


सड़क गंगा ब्लॉग प्रारंभ होने के बाद 17 जून को हेमचंद एवं 20 तारीख को दो अन्य युवकों की मौत सड़क दुर्घटना में हुई। कल की दुर्घटना में वैन सवार सभी एक ही परिवार के थे। राजिम का कंसारी परिवार बेटी की ससुराल में किसी की मौत पर अंत्येष्टि में शामिल होने गया था। इसमें कोमल प्रसाद कंसारी पिता किसुन कंसारी 58 वर्ष की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गयी।
वैन सवार कंसारी के परिजनों में दीपक कंसारी 35  वर्ष, मन्नु कंसारी 35 वर्ष, मन्नु की पत्नी 30 वर्ष और उसके दो  बच्चे अभिषेक 12 वर्ष एवं अन्जु 6 वर्ष के अलावा ड्रायवर मुस्तकीन खान घायल हो गए। दीपक एवं मन्नु के सिर में गंभीर चोटे आई हैं, जिन्हे रामकृष्ण हास्पिटल में भर्ती किया गया है। यह दुर्घटना ग्राम केन्द्री के समीप हुई।
घटना रवि-सोम की रात की साढे बारह बजे की है, अभनपुर रोड़ केन्द्री गांव के पास  ट्रक क्रमांक सीजी 07 एच 0405 का टायर पंचर हुआ था। जिसे रोड़ पर खड़ी करके टायर बदला जा रहा था इसी बीच  तेज गति से आ रही मारुति वैन क्रं सीजी 04 एच ए 7978 उससे टकरा गयी।
टक्कर इतनी भीषण थी कि वैन के चिथड़े उड़ गए, इसमें फ़ंसे लोगों को मुस्किल से निकाला गया। वैन की छत उड़ चुकी थी।

विज्ञापन की लीला-फ़र्लांग पत्थर 8/2

सोमवार, 27 जून 2011 0 टिप्पणियाँ
विज्ञापन वालों ने कोई जगह खाली नहीं छोड़ी है, अब इनके कैप्शुल खाने से किसी के पेट की चर्बी कम हो न हो, परन्तु कैपशुल कम्पनी वालों के पेट की चर्बी जरुर बढ जाएगी।

भविष्य में जब विज्ञापन के लिए जगह समाप्त हो जाएगी, तो कुछ इस तरह का प्रयोग होने की आशंका है। बाजारवाद जो कुछ करवा दे, वह कम ही है।

कपालभाति के साथ कत्थक

रविवार, 26 जून 2011 7 टिप्पणियाँ
काका जी पुलिया पर बैठ कर पेट अंदर-बाहर कर रहे हैं, लोहार की धूंकनी जैसे धुकाई चल रही थी। बाबा राम देव का चमत्कार है जो उन्होने योगा को योग के वास्तविक स्वरुप में बदल कर गाँव-गाँव तक पहुंचा दिया। काका जी को मैने बताया कि इस पुलिया में बिच्छुओं की खदान है, एक बार बिच्छुओं को भुगत कर देख लिया। अगर ध्यान नहीं रहा तो कपालभाति के साथ-साथ कत्थक भी करना पड़ेगा। बरसात में साँप बिच्छुओं का ध्यान रखना चाहिए।


छाती में धंसी हुई कील

शुक्रवार, 24 जून 2011 5 टिप्पणियाँ
हरे भरे वृक्षों पर लोग लोहे की कील से अपना विज्ञापन ठोक जाते हैं। ऐसी कोई जगह नहीं बची जहाँ विज्ञापन न हो। इन वृक्षों में धंसी हुई कील देख कर लगता है कि यह मेरी छाती में ही धंसी हुई है। जिसकी पीड़ा का अहसास मुझे हो रहा है। एक तरफ़ तो सरकार वृक्ष लगाने के लिए हरियाली कार्यक्रम चला रही है, दूसरी तरफ़ वृक्षों को घायल किया और काटा जा रहा है। पी डब्लु डी वाले इन पर कार्यवाही क्यों नहीं करते?


माईल स्टोन 27 से 25 तक

गुरुवार, 23 जून 2011 10 टिप्पणियाँ
चलते हैं "सड़क गंगा" के तीरे-तीर प्रात: भ्रमण के लिए, निकलते समय देखा कि आंगन बतर कीरी से भरा हुआ है। जमीन पर पैर रखने पर दस-बीस नीचे आने का खतरा था, इसलिए दूसरे दरवाजे से जाना पड़ा। "बतर कीरी" स्थानीय भाषा में "पंख वाली दीमक" को कहते हैं। जैसे ही असाढ का महीना आता है और पहली बारिश के साथ ही यह बांबी से बाहर आ जाती है, किसान जान जाते हैं कि अब बतर (खेत बुआई) का समय  आ गया है। यह कीड़ा बतर की सूचना देता है, इसलिए इसका नाम बतर कीरी पड़ गया।

बतर कीरी

आगे चलने पर खेतो में खातु (खाद) पलाया (डाला) हुआ दिखाई दिया। मतलब किसान फ़सल लेने की अपनी पुरी तैयारी में है। खातु गाड़ा भोर से ही चालु हो जाता है। अपने घुरवा का खातु किसान खेतों में पहुंचाते हैं, गोबर खाद से फ़सल अच्छी होती है, मवेशियों की कम होती संख्या के कारण गोबर खाद समुचित मात्रा में नहीं मिल पाता। इसलिए किसान को रासायनिक खाद का उपयोग करना पड़ता है।

खेत में डाला गया खाद

खेतों की अकरस जोताई ( वर्षा की पहली बौछारों में पहली जोताई ) हो चुकी है, कुछ दिनों में खेतों में बीज छिड़क कर फ़िर एक बार जोताई की जाएगी। जिसको रोपा पद्धति से खेती करना है वह थरहा (पौध) के लिए बीज पहले ही डाल चुका है। सावन में खूब पानी गिरने पर रोपा (पौधा रोपना) लगाया जाएगा। अभी रोपा लगाने में समय है।

अकरस जोताई
सड़क गंगा पर आवा-गमन जारी है, अभी दिन निकला नहीं, धुंधलका छाया हुआ है, प्रात: भ्रमण वाले यात्री मिलने लगे हैं। मैं भी सड़क गंगा के साथ-साथ चल रहा हूँ।

सड़क गंगा
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NH-30 - मेरी सड़क गंगा

मंगलवार, 21 जून 2011 14 टिप्पणियाँ
राष्ट्रीय राजमार्ग-43, जिसका नाम बदल कर अब राष्ट्रीय राजमार्ग- 30 हो गया है, यह हमारे गाँव की जीवन रेखा। इसी सड़क से आजादी के पश्चात विकास गाँव में आया। विकास के साथ आवश्यक एवं अनावश्यक बुराईयों ने भी इसी सड़क के माध्यम से गाँव में प्रवेश किया। इसी सड़क से हमने शहर जाकर विद्याध्ययन किया। पता नहीं कितनी शताब्दियों पहले यह बनी है। लेकिन मुझे पता है कि इसका दोहरीकरण सन 1972 में हुआ था, जब इसे राज्य मार्ग से राष्ट्रीय राजमार्ग घोषित किया गया। यह राष्टीय राजमार्ग रायपुर शहर के जयस्तंभ चौक से प्रारंभ होकर विशाखापट्टन तक पहुंचता है। छत्तीसगढ से प्रारंभ होकर उड़ीसा से गुजरता हुआ आन्ध्रप्रदेश को जोड़ता है। यह गंगा सदृश्य जीवन रेखा का काम करता है। वह भी समय था जब दिन भर में दो चार मोटर गाड़ियां ही गुजरती थी, आज सड़क पार करने के लिए जान की बाजी लगानी पड़ती है।

हो सकता है पहले यह "गाड़ा रावन या धरसा" (बैलगाड़ी का रास्ता) हो। जिसके साथ-साथ अंग्रेजों ने रेल लाईन बनाई। 1896 में छत्तीसगढ में अकाल पड़ा, लोगों को रोजगार एवं प्राकृतिक सम्पदा के दोहन के इरादे से अंग्रेजों ने रेल लाईन का निर्माण कराया। जिसकी सेवा सन् 1900 में प्रारंभ हुई। (एक बार जानकारी लेने रेल्वे स्टेशन भी गया था,पर कुछ अधिक जानकारी नहीं मिली) छुक-छुक करता भाप का इंजन जब रायपुर से धमतरी और राजिम की ओर दौड़ा होगा तो लोगों ने कौतुहल भरी निगाहों से देखा होगा। यह रेल जब सुबह शाम घर के पीछे से गुजरती है तो उस रोमांच को महसूस करता हूँ। नैरोगेज की गाड़ी से मैने यात्रा 4-5 बार ही की है। इस रेल से भूतपूर्व रास्ट्रपति अब्दुल कलाम जी ने भी सफ़र किया है। मेरा सड़क गंगा से निरंतर सम्पर्क बना रहा। सन् 1984 से सप्ताह में लगभग 4 बार अभनपुर से रायपुर आना-जाना होता है। इन 26 वर्षों में 27 किलो मीटर मार्ग के मिल के पत्थरों ने भी बतियाना शुरु कर दिया। वे भी अजीज हो गए हैं, दूर से ही पहचान लेते हैं। अगर आंकड़े लगाऊं तो लगभग 1,87,200 किलो मीटर इस मार्ग पर चल लिया हूँ, अहर्निश यात्रा जारी है।


मैं इसे सड़क गंगा ही कहूँगा, क्योंकि गंगा सिर्फ़ एक नदी ही नहीं संस्कृति का नाम भी है। इसी तरह राष्टीय राजमार्ग नम्बर 30 भी एक संस्कृति का ही नाम है। रायपुर से प्रारंभ होकर लगभग 620 किलोमीटर का मार्ग तय कर विशाखापट्टनम पहुंचता है। इसकी यात्रा के दौरान भाषाएं, बोलियाँ, रहन-सहन, खान-पान, मौसम, पर्वों, राज्य, संस्कृति, मकानों में स्पष्ट बदलाव महसूस करेंगे। इस सड़क गंगा के साथ-साथ चलते हुए मैने भी बहुत बदलाव देखे हैं। इसी सड़क गंगा से कभी भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इम्पाला कार में अपने काफ़िले के साथ मेरे गांव में आई थी। बच्चा था इसलिए इम्पाला को नजदीक जाकर अपने हाथों से छू सका। बुलेट मोटर सायकिल में सामने विंड स्क्रीन लगा था और ऐसी कई बुलेट वाले कार के सामने चल रहे थे। मैदान में चारों तरफ़ टीवी ही टीवी लगे थे, लोग मुंह फ़ाड़ कर उसमें इंदिरा गांधी का भाषण सुन रहे थे। ऐसा भी हुआ था।

यह वही सड़क गंगा है जिससे होकर 1952 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद हमारे गांव में आए थे और उन्होने अस्पताल, स्कूल एवं ब्लॉक दफ़्तर का शिलान्यास किया था। अब तो यहां के मैदान में हेलीकाप्टर लैंड करते हैं। सड़क मुंह उठाकर आसमान की तरफ़ देखती है। रोज वी आई पी कहाने वाले लोग उपर ही उपर उड़ते रहते हैं। सड़क पर आम आदमी ही चला करते हैं। जब उड़नखटोला धोखा दे देता है, तभी आसमानी लोग जमीन पर आते हैं। हमने बचपन में देखा है, इस सड़क गंगा के किनारे स्कूली बच्चों को साफ़ सुथरी युनिफ़ार्म पहने लाल बत्ती में आने वाले नेता मंत्री का स्वागत करते हुए, क्योंकि उन बच्चों मे मैं भी शामिल होता था। एक लाल बत्ती सारे प्रशासन में हल-चल मचा देती थी। अफ़सरों की नींद हराम हो जाया करती थी। अब समय के साथ बदलाव आ चुका है, दिन में भी बीसियों लाल बत्ती और पीली बत्ती गुजर जाती हैं, किसी के कान पर जूँ भी नहीं रेंगती। अफ़सर कान खुजाते हुए इन्हे गुजरते हुए देखते हैं।

धीरे-धीरे गाँव कब कस्बे से शहर में बदल गया ,पता ही नहीं चलता। अगर प्रदेश की राजधानी इधर नहीं आती। आज से 10 वर्ष पहले किसी ने भी न सोचा था कि गाँव एक रात में ही शहर में बदल जाएगा। आधी रात को घोषणा हुई कि अभनपुर और मंदिर हसौद ब्लॉक के 26 गावों की जमीन को मिला कर नयी राजधानी बनाई जाएगी। बस उसी दिन से लकदक करती बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ गाँव-गाँव में घुमने लगी। हाथों और गले मोटी-मोटी सोने की चेन पहने एवं दो-दो मोबाईल लिए लोग किसानों की जमीन के सौदे में लग गए। इनकी चमक-धमक से चमके युवा भी जमीन की दलाली में लग गए। किसानों को 10-20 हजार रुपए बयाना के देकर इन्होने करोड़ो कमाए। किसानों की जमीन बिक चुकी है। गांव शहर होने की सारी अहर्ताएं पूरी कर कर रहा है। जिनकी कोठी में धान  भरा रहता था वे अब मजदूरी कर रहे हैं या दारु पीकर नकारा हो रहे हैं। घर-घर में गाड़ियाँ और भौतिक वैभव के सामान जुटा लिए हैं। लेकिन ये कब तक साथ देंगे, खेती तो जीवन पर्यन्त साथ देती थी, पेट भरती थी। सड़क गंगा में बह कर मुद्राराक्षस एवं मगरमच्छ भी गाँव तक पहुंच गए।

बहुत कुछ इस सड़क गंगा ने देखा है और इसके साथ मैने भी। लेकिन मेरे से अधिक राष्ट्रीय राजमार्ग के मील के पत्थर जानते हैं। वे तटस्थ भाव से सब देखते रहे हैं साक्षी बन कर। राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के मौन साक्षी हैं। मैं भी अब तक मौन ही था, अब मुखर हो रहा हूँ। सब कुछ इतना धीरे-धीरे बदलता है कि समझ ही नहीं आता , बदलाव हो रहा है। "मीर तकीं मीर" का एक स्लो मोशन शेर याद आ गया, "मुख सिती तुम उल्टो नकाब आहिस्ता आहिस्ता, ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।" जो देखा है उसे सहेजना चाहता हूँ,जो देख रहा हूँ उसे भी। यह ब्लॉग भी सहेजने की प्रक्रिया का एक उपक्रम ही है। इसके माध्यम से मैं इस सड़क गंगा के साथ-साथ चल कर समय के बदलाव को चित्रों एवं आलेखों के द्वारा सहेजना चाहता हूँ। एक तरह का दस्तावेजीकरण ही मान कर चलिए। अगर ये दस्तावेज भविष्य में किसी के काम आ जाए तो मेरा प्रयास सफ़ल होगा। क्यों ठीक कह रहा हूँ न? आपका स्वागत है।

 
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